Saturday, August 4, 2018

राह से भटका वामपंथ

विश्व विचारों से भरापूरा है। ऋग्वेद के ऋषि कवि यह तथ्य जानते थे। उन्होंने स्तुति की-सभी दिशाओं से आएं सद्विचार हमारे पास। विचार विविधता भारतीय संस्कृति का आभूषण है। यहां अनेक विचार हैं। इस्लाम आने के साथ ही मजहबी विचारधारा भी आई और ईस्ट इंडिया कंपनी के बाद ईसाइयत का विचार भी फला-फूला, लेकिन 1925 में कानपुर में भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के जन्म के साथ आए वैज्ञानिक भौतिकवादी विचार ने नई पीढ़ी को झकझोर दिया था। संयोग है कि उसी साल 1925 में ही भूसांस्कृतिक राष्ट्रवाद का स्वदेशी विचार लेकर डॉ. हेडगेवार ने राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ बनाया था। मार्क्सवाद पर देसी विचार था और संघ का राष्ट्रवाद स्वदेशी। दोनों विचारधाराओं में कांटे की टक्कर हुई। दोनों समूहों की टक्कर पीछे 92 साल से जारी है। अब कम्युनिस्ट विचार के लोग पुरातात्विक मिथक जैसे हैं। संघ विचार के कार्यकर्ताओं ने उन्हें उनके गढ़ केरल में घुसकर चुनौती दी है। हिंसक वाम समूहों द्वारा संघ कार्यकर्ताओं की हत्या भी की जा रही है। हिंसक विचार का अंत सुनिश्चित है। वामपंथ का अस्त 92 साल के भीतर ही हो जाना अस्वाभाविक नहीं। अंधविश्वासी पंथिक विचार का आधुनिक विश्व में कोई भविष्य नहीं। मार्क्सवाद का सामाजिक दर्शन ईसाई पंथिक विचार का विरोधी था। मार्क्स ने इसी संदर्भ में ईश्वर को अफीम कहा था। ईसाइयत का ईश्वर मार्क्स की दृष्टि में अंधविश्वास था। अंधविश्वास से ठगी और शोषण होता है। वैज्ञानिक दृष्टिकोण में अंधविश्वास का स्थान नहीं होता, लेकिन आश्चर्य है कि तर्क बुद्धि और शुद्ध अर्थशास्त्र से पैदा मार्क्सवाद भी मजहब बन गया। मार्क्सवादी कट्टरपंथी मजहबी से भी ज्यादा कट्टरपंथी हैं। वाद विवाद संवाद में उनकी आस्था नहीं है। भारत के सुशिक्षित वामपंथी भी अपनी भारत विरोधी टिप्पणियों के लिए अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का हवाला देते हैं, लेकिन दूसरे पक्ष के सही और संवैधानिक तथ्य को भी ‘थोपा जाना’ बताते हैं। वंदेमातरम् राष्ट्रगीत है। वे कहते हैं कि इसका थोपा जाना अनुचित है। राष्ट्रभाव स्वाभाविकता है।

वे कहते हैं कि राष्ट्रवाद का थोपा जाना असहिष्णुता है। राष्ट्रीय एकता और अखंडता की निष्ठा अपरिहार्य है। वे इसे भी थोपे जाने का आरोप लगाते हैं। उनकी प्रकृति विचार आधारित नहीं, बल्कि पंथिक अंधविश्वासी है। कम्युनिस्ट विचार के पतन का इतिहास बड़ा दिलचस्प है। 1928 में ‘कम्युनिस्ट इंटरनेशनल’ की बैठक हुई। अंग्रेज शासित उपनिवेशों में पार्टी बढ़ाने के लिए अलग रणनीति बनी। भारतीय कम्युनिस्टों को निर्देश मिला कि वे भारत के राष्ट्रीय सुधारवादी नेताओं से संघर्ष कर गांधीवादी स्वराजवादी आदि सभी राष्ट्रवादियों का पर्दाफाश करें और राष्ट्रवादी बुर्जुआ व ब्रिटिश साम्राज्यवादियों के अंतर्विरोधों का लाभ उठाएं। बेशक दोनों में अंतर्विरोध थे। राष्ट्रवादी स्वराज चाहते थे और साम्राज्यवादी यथास्थिति। कम्युनिस्ट क्रांति चाहते थे। यह इतिहास की गलत व्याख्या पर आधारित थी। आखिर दोनों के अंतर्विरोध से कैसा लाभ उठाना था? 1934 तक भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के कामकाज के मुख्य केंद्र मुंबई, कलकत्ता, पंजाब और मद्रास थे। 1934 में कांग्रेस के समाजवादी समूह ने कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी बनाई। भारतीय कम्युनिस्ट समाजवाद को अपना पेटेंट मानते थे। उन्होंने कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी को ‘सोशल फासिस्ट’ बताया। जो उनकी हां में हां मिलाए वही वामपंथी और जो वैसा ही नया विचार समूह बनाए वह फासिस्ट। फासिस्ट उनकी प्रिय गाली है। वे मोदी सरकार को भी फासिस्ट कहते हैं। कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी की लोकप्रियता बढ़ी तो यही कम्युनिस्ट इसके सदस्य बन गए। 
कांग्रेस और गांधी से लड़ाई, लेकिन उसी समूह में काम कम्युनिस्ट ही कर सकते थे। सोशलिस्ट व कम्युनिस्ट मित्रता 1937 तक परवान चढ़ी। कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी के मेरठ सम्मेलन में दोनों को मिलाकर माक्र्स और लेनिन के विचार पर नई यूनाइटेड कम्युनिस्ट पार्टी के गठन की बात हुई। ईएमएस नंबूदरीपाद व जेडए अहमद कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी के केंद्रीय संयुक्त मंत्री बने। दोस्ती और दुश्मनी साथ-साथ। 1940 की रामगढ़ बैठक में भाकपा ने ‘सर्वहारा मार्ग’ की घोषणा की। इसमें पूरी हड़ताल, कर न दो के एलान के साथ हथियारबंद क्रांति की अपील थी। कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी ने सभी कम्युनिस्टों को बर्खास्त कर दिया। कम्युनिस्ट पार्टी ने कथित क्षेत्रीय सामंतों के विरूद्ध तेलंगाना, त्रिपुरा और केरल में हथियारबंद आंदोलन चलाए। हिंसा से शक्ति बढ़ी, लेकिन इससे ज्यादा अलोकप्रियता भी बढ़ी तो भी पार्टी 1952 में लोकसभा में प्रमुख विपक्ष बनी। उसका जनाधार बंगाल, केरल व त्रिपुरा में बढ़ा। इन राज्यों में सरकारें भी चलाईं। पश्चिम बंगाल हाथ से निकल चुका है। केरल की स्थिति नाजुक है। त्रिपुरा भी ठीक नहीं। 
कम्युनिस्ट भारत और भारतीय संस्कृति से प्यार नहीं करते। वे भारत में कई राष्ट्र देखते हैं। एक जन एक संस्कृति और एक राष्ट्र की समझ वैज्ञानिक भौतिकवाद में नहीं है। चीन का हमला भारत के मन पर गहरा जख्म है। कम्युनिस्ट पार्टी के भीतर कम्युनिस्ट चीन और अपने भारत की निष्ठा को लेकर द्वंद्व था। पार्टी टूट गई। चीन प्रिय मार्क्सवादी कम्युनिस्ट हो गए और शेष भारतीय कम्युनिस्ट। वैसे कम्युनिस्ट विचार के दो दर्जन से ज्यादा संगठन हैं। दूसरों को फासिस्ट बताने वाले वामसमूह ने 1975 में इंदिरा गांधी की फासिस्ट तानाशाही का समर्थन किया। आपातकाल में पूरा देश यातनागृह था। तब भी कम्युनिस्ट फासिस्ट सत्ता के समर्थक थे। वे सोनिया गांधी के संप्रग में भी थे। कहने को उसका ‘न्यूनतम साझा कार्यक्रम’ था, लेकिन यह प्रच्छन्न सत्ता भागीदारी का न्यूनतम साझा प्रोग्राम था। उन्होंने अपनी शक्ति का दुरुपयोग किया। वे सत्ता को हिलाते थे, सत्ता हिलती थी। वे अपने विचार थोपते थे। संप्रग सिर झुकाने को विवश था। कम्युनिस्ट प्रभाव का विकास कांग्रेस के खाद पानी से ही होता रहा। 
2008 में वामपंथी अमेरिकी परमाणु करार के विरोधी थे। उन्होंने संभवत: पहली दफा ‘राष्ट्रहित’ शब्द का प्रयोग किया। तब बंगाल बचा था। वाम हिंसा और कुशासन से पीड़ित बंगाली जनसमुदाय ने उन्हें खारिज किया। उत्तर प्रदेश में मुलायम, माया के सहयोग से दम भरने को तैयार थे, लेकिन उनसे यारी को कोई तैयार नहीं हुआ। उनकी विदाई का समय है। तो भी तमाम जिज्ञासाएं हैं। मसलन उन्होंने गांधी का विरोध क्यों किया? उन्होंने सुभाष चंद्र बोस का समर्थन क्यों नहीं किया? उन्होंने 1857 को स्वाधीनता संग्राम क्यों नहीं माना? आपातकाल का समर्थन क्यों किया? उन्होंने पूर्वज आर्यों को विदेशी सिद्ध करने में ही सारी बौद्धिक शक्ति क्यों लगाई? सवाल और भी हैं। 92 साल कम नहीं होते। इसी दौरान राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ बिना सदस्यता पर्ची ही दुनिया का सबसे बड़ा संगठन बन गया। यह राष्ट्रीय होकर भी अंतरराष्ट्रीय है और कम्युनिस्ट अंतरराष्ट्रीय होकर भी केरल में हारी लड़ाई लड़ने को मजबूर हैं? आत्मचिंतन ऐतिहासिक ‘कम्युनिस्ट घोषणा पत्र’में है नहीं। कम्युनिस्ट शायद इसीलिए ऐतिहासिक गलतियां करते हैं। इतिहास में ऐसी गलतियों के लिए क्षमा की कोई व्यवस्था नहीं। 

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